मुहर्रम और उसका महत्व

अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) क़ुराने करीम सूरह यूसुफ और आयत नम्बर 111 में बयान करते हैं कि:


لَقَدۡ كَانَ فِى قَصَصِہِمۡ عِبۡرَةٌ۬ لِّأُوْلِى ٱلۡأَلۡبَـٰبِۗ مَا كَانَ حَدِيثً۬ا يُفۡتَرَىٰ وَلَـٰڪِن تَصۡدِيقَ ٱلَّذِى بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَتَفۡصِيلَ ڪُلِّ شَىۡءٍ۬ وَهُدً۬ى وَرَحۡمَةً۬ لِّقَوۡمٍ۬ يُؤۡمِنُونَ

अलबत्ता उन लोगों के हालात में अक़्लमन्दों के लिये इबरत है, कोई बनाई हुई बात नहीं है बल्कि इस कलाम के मुवाफिक़ है जो इस से पहले है और हर चीज़ का बयान और हिदायत और रहमत उन लोगों के लिये है जो ईमान लाते हैं
जैसा कि मालूम है कि मुहर्मुल हराम का मुक़द्दस महीना शुरू हो चुका है, इस महिने कि फज़ीलत क़ुरानो हदीस में आयी हैं। यह एक बहुत इम्तियाज़ी महीना है दूसरे महिनों कि तरह क़ुरआन में इस महीने से मुताल्लिक़ एक आयत में अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने इशारा किया है कि अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने चार मुक़द्दस महीने रखें हैं। जिसमें से एक महीना मुहर्रम का महीना है और इस्लामी रिवायत के अनुसार इसमें भी मुहर्रम कि दसवीं तारीख एक खास तारीख़ और खास दिन है । क्योंकि ये वो दिन था जिस दिन अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने बहुत से अम्बियाओं कि मदद की। अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) कि रहमत और उसकी नुसरत इस दिन देखने को मिली है। जब अलग अलग नबियों को अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने अपनी मदद पहुंचायी । जैसे अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने नूह (عليه السلام) की कश्ती को दसवें मुहर्रम को ही पार लगाया था। हदीस में आता है कि अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने हज़रत सैय्यदना मूसा (عليه السلام) से भी दसवें मुहर्रम को ही बात कि थी। और उनको शरीयत अता की थी। और यहाँ तक कि बहुत सी हदीस में आता है कि दुनिया में जब क़यामत वाक़े होगी तो वो दिन भी दस मुहर्रम का होगा।
नवीं, दसवी और ग्यारहवीं तारीख़ को रमजान रखने का हुक्म दिया गया है। उसके अलावा इस्लामी इतिहास में मुहर्रम महीने कि बहुत ज्यादा अहमियत है। इस महीने में बहुत से वाक़ियात हुए हैं। और ये वाक़ियात अहादीस की कईं किताबों में आये हैं। अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) से पहले, उनके दौर में और बाद में भी इसके बारे में काफी कुछ लिखा गया है। और उसके अलावा एक बहुत अहम वाक़िया जो इस्लामी तारीख में रोनुमा है वो हज़रत हुसैन (رضي الله عنه) का वाक़िया है। कई रिवायत में इस वाक़िये का ज़िक्र आता है जिनमें कुछ रिवायतें कमजोर हैं और कुछ सक़ा भी मानी गयी है। लेकिन आम तौर पर इसकी फज़ीलत पर किसी को कोई इख़्तिलाफ नहीं है।
आज भी मुस्लिम दुनिया में मुसलमानों के लिए मुहर्रम का महीना बहुत अहम है। खास तौर पर दस मुहर्रम का दिन जो हज़रत इमाम हुसैन (رضي الله عنه) कि शहादत के दिन से याद किया जाता है। बहेसियते मज़मुई पूरा मुहर्रम का महीना दरअसल पैग़म्बर कि और सालेहिन की जद्दोजहद का महीना है। और अल्लाह के नबी  (صلى الله عليه وسلم) के दौर की जद्दोजहद के बाद, यज़ीद के खिलाफ इमाम हुसैन कि जद्दोजहद एक बहुत ही अहम जद्दोजहद थी। उम्मत के सभी मसलकों में इसे एक अलमिये (tragedy) के दिन से याद रखते हैं।
आम तौर पर देखा जाता है कि जब किसी वाक़िये की तारीख (history) बयान कि जाती है तो तारीख को बयान करने के पीछे एक इस्लामी अन्दाज़ होता है और एक ग़ैर-इस्लामी अन्दाज़ होता है। ग़ैर-इस्लामी अन्दाज़ में वाक़ियात को या तो कुछ लुत्फअंदोज बनाने या मनोरंजन के लिए लच्छेदार अंदाज में बाते बयान की जाती है जब किसी कि तारीफ की जाती है तो तारीफ कि कोई इन्तिहां नहीं रखी जाती, उसी तरह किसी कि बुराई कि जाती है तो बुराई कि कोई इन्तिहां नहीं रखी जाती है। सच और झूठ दोनो को मिला दिया जाता है। देवमालाई कहानियां और हक़ीकत दोनो को ऐसे मिला दिया जाता है के आम लोगों कि समझ से परे हो जाता है के हक़ीक़त क्या है। हिन्दू संस्कृति में ये चीज बहुत पाई जाती है। क्योंकि उनका अक़ीदा ही बातिल पर आधारित है। उनके पास जो कुछ भी है वो ज्यादातर कहानियां है जो उनके बुद्दिजीवियों (intellectuals) ने बनाई है। ये बात स्वाभाविक है की जब बुनियाद में ही गलती है तो बाद के जितने भी लोग पैदा होंगे वो हर चीज में वही नियम लागू करेगें। बदक़िस्मती से मुसलमानों में भी ये चीज प्रवेश कर गई और मौजूद है। हमारे यहाँ भी यहीं चलन है के तारीख को कहानी किस्सों कि तरह जिन्दगी कि हक़ीकतों से अलग कर के देखा जाता है जैसे कि कोई वक़्ती तौर पर मनोरंजन या कहा जा सकता है कि अलीफ लैला कि कहानी सुन रहें हैं । (नाऊज़ु बिल्लाह) जैसे कि खुद क़ुरआन कहता है कि के मुशरीकीन इस बात पर एतराज़ करते थे कि ये तो बडे बूढों के पूराने किस्से है। मुसलमानों ने भी इस्लामी तारीख को बयान करने का ऐसा ही अंदाज़ अपना लिया है । 

ऐसा अंदाज़ जिससे सुनने वालो को ऐसा लगता के हाँ कभी हमारे बुजुर्गों ने कभी कोई महान काम किया होगा लेकिन आज हमारी जिन्दगी से इसका क्या सम्बन्ध है, हम इसे जानकर क्या हाँसिल कर सकते हैं। जब बयान करने वाले कि नियत कुछ ओर होती है तो ऐसा रवय्या अपने आप पैदा हो जाता है। मिसाल के तौर पर जब एक फिल्म बनाई जाती है तो उसमें एक डायरेक्टर कि मंशा हमेशा यही होती है कि लोगों को मनोरंजित किया जाये। इसलिये वो संजीदा (serious) से संजीदा कहानी को ऐसे अन्दाज़ में बना देगा कि लोग उससे मनोरंजित हो जाएगें। और इसी कहानी को डायरेक्ट ये सोच कर बनाए कि मुझे इसमें कुछ सामाजिक सन्देश देना है ताकि समाज में इसका कुछ असर पैदा हो यानि किसी वाक़िये को चाहे जैसा रुख़ दे दो, चाहो तो उसकी रूह बिलकुल खत्म कर दो और चाहो तो एक छोटी सी बात में भी रूह पैदा कर दो यानि जो उसकी असल मंशा है उसको ज़ाहिर कर दो।
क़ुरआन का एक अंदाज़ है वाक़िया बयान करने का। वो ही अंदाज़ है इतिहास को बयान करने का सबसे सही तरीका है। क़ुरआन जब वाक़ियात को सुनाता है तो वो वाक़ियात कि उन तफ्सीलात में नहीं जाता जिससे उसके सन्देश में कोई फायदा नहीं पहुँचता। क़ुरआन में अंबियाओं के जो वाक़ियात बयान किये हैं वो एक मकसद के तहत बयान किये हैं कि अंबियाओं ने किस तरह इस्लाम की दावत उनकी क़ौम को दी और दीन के रास्ते में कठिनाईयों को उठाने के बावजूद वो किस तरह साबित क़दमी से जमे रहे। और उनका अपने क़ौम को दिया गया ख़िताब और उस ख़िताब के बदले में उस क़ौम ने क्या प्रतिक्रिया दी और लोगों ने इस्लाम कि दावत रोकने के लिए क्या तदबीरे अपनाई, और  अल्लाह कि मदद किस तरह से आयी। ये सारी बातें अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने मुख़्तसर आयात में बयान कर दीं। बडे से बडा वाक़िया मुश्किल से दो या तीन पेज से ज़्यादा का नहीं है और ऐसे वाक़ियात की तादात क़ुरआन में बहुत कम है। हज़रत यूसुफ और मूसा अलेस्सलाम का वाक़िया है जो थोडा ज्यादा लम्बा है। वरना छोटे छोटे वाक़ियात दो-पाँच आयात में ज़िक्र कर दिया गया। वाक़ियात को बयान करने का यह तरीका क़ुरआन ने अपनाया है ।
क़ुरआन जब किसी वाक़ियात के बारे में बात करता है तो उसका मक़सद सिर्फ ये होता है कि किसी तरह से वो बात हमारे ज़हनो में रह जाए और हम उससे सबक हांसिल करें, वो हमारी समझ का हिस्सा बन जाए और ये वाक़ियात हमारे क्लचर (culture) का हिस्सा बने। जैसे क़ुरआन ने किसी पैग़म्बर की दावत का वाक़िया बयान किया तो जब हम इसको पढते हैं और ग़ौर व फिक्र करते है तो ये वाक़िया हमारे दिमाग़ पर नसब हो जाता है। अपनी ज़िन्दगी में जब कभी हम दावत के मरहले पर चलेगें और उसके ऐवज में मुसीबतें उठाएगें तो हमारे सामने इस वाक़िये की तस्वीर सामने आ जाएगी। हमें लगेगा कि जो मुसीबत हमारी दावत में आ रही है हूबहू ऐसी ही मुसीबतें अंबियाऐ किराम ने भी अपनी दावत में उठाई हैं और उन्होंने अल्लाह पर भरोसा करते हुऐ इन मुसीबतों का किस तरह से सामना किया। तो इससे पता चला कि क़ुरआन ने किसी वाक़िये को सिर्फ मनोरंजन के लिए बयान नहीं किया बल्कि हमारी जिन्दगी में रहनुमाई करने के लिए बयान किया है।

क़ुरआन में किसी वाक़िये को बयान करने का लहज़ा भी देखा जाए तो ऐसा लगता है जैसे कि वो वाक़िया हमारी ही जिन्दगी से ताल्लुक रखता है। जैसे क़ुरआन में सूरह बकराह में अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) फरमाते हैं और याद करो जब हमने मूसा को किताब दी और फुरक़ान दिया और इसी तरह से सूरह बकरह ही में एक और जगह फरमाया और याद करो इब्राहिम को, इस्माइल को जब उन्होंने क़ाबे कि दीवारों कि बुनियाद को खडा किया और याद करो कि किस तरह से हमने समुन्द्र को फाड दिया, और याद करो कि हमने किस तरह से तुमसे अहद लिया, और याद करो हज़रत ईसा अलेहिस्सलाम को यानी मरियम के बेटे।

तो अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने इन वाक़ियात को कहीं भी मरी ज़बान (dead language) में बयान नहीं किया। बयान करने का अंदाज़ भी ऐसा है जो इंसान कि तवज्जो खेंचता है और उसका ध्यान उस तरफ ले जाता है। क़ुरआन ने जब किसी वाक़ियात को बयान किया है तो उसने उस वाक़िये के स्थान (location) और तारीख़ (date) को बयान नहीं किया क्योंकि क़ुरआन कि मंशा ये है ही नहीं बल्कि क़ुरआन कि मंशा इस वाक़िये से एक सन्देश (message) देना है। इसलिए क़ुरआन एक इतिहास की किताब नहीं है। उसका मकसद इतिहास पढाना नहीं है बल्कि इतिहास से सबक सिखाना है। ये मुख्तसर बात सिर्फ इसलिये रखी गई ताकि इस बात को ध्यान में रखा जाये कि इस्लामी तारीख से हमें क्या सबक लेना है और इसको इस निगाह से देखा जाये कि हमारे बुजर्गों ने जो इस्लाम के लिये जो क़ुर्बानिया दी हैं वो दरअसल आज हमारी जिन्दगी से क्या ताल्लुक रखती हैं।
यक़ीनी तौर पर अगर इस्लामी इतिहास कि बात की जाए इसको को पढा सिर्फ इसीलिए जाता है ताकी हम इससे सबक हाँसिल करें। हमारे पूर्वज वही अक़ीदा रखने वाले थे जो हम रखते हैं, लेकिन वो लोग कामयाब थे और हम नहीं आख़िर क्यों। यदि आज ही अचानक आपको पता चले के आपके परदादा इस जगह के गवर्नर हुआ करते थे जहाँ आप रहते हैं तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी। हर सर बुलन्द क़ौम के लिये इतिहास बहुत मायने रखता है। जिन कौमों ने अपनी जिन्दगी में कोई बडा कारनामा अंजाम नहीं दिया उन कौमों के पास अपना कोई इतिहास नहीं होता। आज वो किसी तरह से थोडी तरक़्क़ी कर गये तो वो सोचते है कि हम अपने बच्चों को क्या दे? हमारे पास कोई इतिहास नहीं है इसलिये उन्होंने झूठा इतिहास गढा है। ताकि वो अपने बच्चों को यह बता सके कि उनके बाप-दादा ने ये कारनामे किये है। अलहम्दुलिल्लाह इस क़ौम का इतिहास तो बहुत ताबनाक है और सरबुलन्द है। इसाई क़ौम का इतिहास भी हमारे इतिहास के सामने बोना साबित होता है। पूरी दो हजार साल के इतिहास में हम देखते हैं कि वो छोटी छोटी साठ सत्तर रियासतों में बटे हुऐ थे, आपस में एक दूसरे के ख़िलाफ जंगे करना और उनके शासकों द्वारा जनता का शोषण करना एक आम बात थी। सिर्फ दो – तीन सौ साल पहले ही पुंर्जागरण (revival) को हाँसिल करके इस क़ौम ने तरक्की की। चूंकि एक बातिल  विचारधारा (ideology) को अपना कर उन्होंने तरक्की हाँसिल की है इसलिये ये तरक़्क़ी भी ज्यादा दिन चलने वाली नहीं है।

यहाँ ये सारी बातें करने का सिर्फ और सिर्फ एक ही मक़सद है वो ये है कि मुहर्रम के मुताल्लिक़ जो इतिहास हमारे पास है उसको सही कसौटी पर उतार कर इस वाक़िये को बयान किया जाये और उससे एक सही मक़सद हाँसिल किया जाये। इस वाक़ियात को याद करने का मकसद ये नहीं है जैसा कि हम आम तौर पर देखते हैं के सवाब हाँसिल करने की नीयत से कोई कहानी किस्सा सुनाया जाता है। लोग सिर्फ इसे सवाब हाँसिल करने का ज़रीया समझ कर रह जाते हैं और इसका असल मक़सद कहीं गुम सा हो जाता है। सवाब का लालच सिर्फ इसलिये दिया गया है ताकि किसी तरह से लोग इन वाक़िये को पढे और सुने और उस पर गौरो फिक्र करें।

जैसा कि माहे मुहर्रम कि फज़िलत के मुताल्लिक़ ऊपर ज़िक्र हुआ कि चार मुक़द्दस महिनों में से ये एक महीना है और अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) फरमाते है कि “रमजान के बाद अगर सबसे बेहतरीन रोजा है तो वो माहे मुहर्रम का रोजा है" उसके अलावा आशूरे का दिन यानि दसवीं मुहर्रम को इसलिए भी याद किया जाता है इसकी बहुत बडी अहमियत है, इस दिन अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने बनी इसराईल को फिरओन से निजात दिलाई थी। फिरओन से निजात दिलाना क्या था? कई सौ साल तक एक तौहिद परस्त क़ौम एक ज़ालिम हुक्मरां के ताबे आ गई थी उसकी वजह थी उनकी नाफरमानी और निकम्मापन। अम्बिया की लाई शरीयत को नहीं अपनाने और बार बार अम्बिया को झूठलाने कि वजह से अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने उन पर ज़िल्लत और ग़ुलामी मुसल्लत कर दी थी। और इसका नतीजा यह हुआ के कई सौ साल तक वो फिरओन के बदतरीन क़िस्म के ज़ुल्म ओ सितम में मुब्तिला रहे। फिर उन्हें कई सालों तक फिरओन से आज़ादी की दुआएं मांगनी पडी, तौबा करनी पडी तब अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने हज़रत मूसा अलेहिस्स्लाम जैसे जलीलुल क़द्र नबी को पैदा किया और उनको फिरओन से आज़ादी दिलाई। 

जिस दिन बनी इसराईल क़ौम को आज़ादी मिली वो मुहर्रम महीने की दस तारीख़ थी ये उनके लिए बहुत बडी ईद का दिन था। जब अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) हिजरत के बाद मदीने तशरीफ लाये और आपने देखा कि मदीने के यहूदी आशूरे के दिन रोजा रखते हैं । और यहूदी ये रोज़ा इसलिये रखते हैं कि इस दिन हज़रत मूसा अलेहिस्सलाम के ज़रिये उनको निजाद मिली थी। अल्लाह के नबी  (صلى الله عليه وسلم) को जब ये पता लगा के इस वजह से ये लोग रोजा रखते हैं तो आपने फरमाया हम इसके ज़्यादा हक़दार है क्योंकि आज हम लोग हिदायत पर हैं, मूसा के रास्ते पर आज हमारे लोग हैं, मूसा मेरे भाई है आज उम्मत उसी दर्जे पर है। तो हमारा ज्यादा हक़ है कि हम रोजा रखें तो आप  (صلى الله عليه وسلم) ने अपने सहाबाओं को रोजा रखने का हुक्म दिया। अलबत्ता यहूदी एक रोजा रखते थे तो आपने उनकी मुखालिफत में दो रोजे रखने का हुक्म दिया। क्योंकि आप (صلى الله عليه وسلم) को अल्लाह की तरफ से हुक्म था कोई ऐसा अमल ना किया जाये जो यहूदीओं से मुताशाबेह हो। उसके अलावा हम जानते हैं कि बनी इसराईल ने दस मुहर्रम को हिज़रत की थी और वो उनके लिए सबसे ज्यादा खुशी का दिन बन गया।

इसी तरह से जब अल्लाह के नबी  (صلى الله عليه وسلم) ने हिज़रत की उसी दिन से इस्लामी कलेंडर की शुरूआत हुई। क्योंकि ये भी मुसलमानो कि ताकत और सरबुलन्दी हांसिल करने का, मुशरिकों के ज़ुल्म से निजात पाने और एक इस्लामी रियासत बनाने का दिन था। इसीलिए आप (صلى الله عليه وسلم) ने इस दिन को पसन्द किया। चाहते तो आप ख़ुद कि विलादत वाले दिन को इस्लाम के केलेंडर कि शुरूआत कर सकते थे। लेकिन ये चुंकि अल्लाह के नबी कि सुन्नत नहीं थी। और इस्लाम को जिस चीज ने सबसे ज्यादा तकवियत पहुंचायी वो हिजरत थी। जिसके ज़रीये मुसलमानों ने मक्के से जा कर मदीने में एक इस्लामी रियासत क़ायम की। सिर्फ चालीस साल के अन्दर-अन्दर पूरा जज़ीराऐ अरब इस्लामी रियासत में आ चुका था। जिस दिन मुसलमानों ने हिज़रत की थी वो भी पहली मुहर्रम का दिन था। और तब ही से इस्लामी केलेंडर कि शुरूआत हुई थी।

आज यक़ीनन मुसलमानों के लिए मुहर्रम महीने में सबसे अहम इमाम हुसैन (رضي الله عنه) कि शहादत है। इमाम हुसैन (رضي الله عنه) ने यज़ीद के खिलाफ जद्दोजहद इसलिये कि क्योंकि वो गासिब था। ग़ासिब उसे कहते है जिसने किसी का ज़ाइज हक़ को छीन लिया हो, उसपे क़ाबिज हो गया हो। उम्मत का ये ज़ाइज हक़ था के वो बैअत दे कर अपने ख़लीफा का इंतखाब करे। ऐसे में यज़ीद के लिए जबरदस्ती बैअत ली गयी। क्योंकि बैअत जबरदस्ती नहीं होती बल्कि वो अपनी दिल कि रजामन्दी से खुशी से दी जाती है। बैअत एक तरह का वोट होता है जो कि मुसलमानों के लीडर ख़लीफा को चुनने के लिए उम्मत अपनी रजामन्दी से देती है। एक ज़ाइज ख़लीफा उसी वक़्त बन सकता है जब उसको उम्मत की तरफ से बैअत दी जाए। कोई भी आदमी अगर उम्मत कि मर्जी के खिलाफ हुकुमत करे तो वो मुतसल्लित (जबरदस्ती क़ाबिज़) कहलाएगा। इमाम हुसैन (رضي الله عنه) की जद्दोजहद इसी बुराई के ख़िलाफ थी। क्योंकि ये एक ऐसी रस्म थी जिसके रिवाज में आने के बाद ख़िलाफत में बिगाड पैदा होने के इमकान थे ।

वो शहादत गैर-मामूली शहादत थी जो उन्होंने अपने पूरे परिवार के साथ दी और वो सिर्फ इसलिए थी कि इस्लाम कि आबरू व इज़्ज़त बचा सकें जो कि दरअसल ख़िलाफत थी। वो ख़िलाफत, जिसको अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने मदीने में अपनी तेरह साल कि जद्दोजहद के बाद इस्लामी शासन व्यवस्था के तौर पर क़ायम किया था। और आपके इंतकाल के बाद आपके सहाबा के लिये जो सबसे ज़्यादा चिंता का विषय था। आप नबी (صلى الله عليه وسلم) के जिस्म की तदफीन को छोड कर सहाबा (رضی اللہ عنھم) तीन दिन और दो रातों तक इस फिक्र में लगे रहे रहे कि आपके बाद मुसलमानों का अमीर (ख़लीफा) किस को नियुक्त किया जाए। जब हज़रत अबु बक्र सिद्दीक़ (رضي الله عنه)को उन्होंने ख़लीफा चुन लिया तो उसके बाद आप नबी (صلى الله عليه وسلم) को तदफीन किया गया।     

ऐसा आख़िर क्यों हुआ कि सहाबा (رضی اللہ عنھم) ने पहले आप (صلى الله عليه وسلم) की तदफीन को तवज्जो ना देकर बल्कि ख़लीफा की नियुक्ति को तवज्जो दी और इसमें किसी भी सहाबी का इख़्तिलाफ नहीं है, ऐसा इसलिये क्योंकि आप नबी (صلى الله عليه وسلم) की तालिमात के मुताबिक़ ख़िलाफत ज्यादा अहम थी। ख़लिफा को चुनना ज्यादा अहम था। हम जानते हैं कि हर क़ौम के लिये एक लीडर (leader) की क्या अहमियत होती है। एक पल के लिए भी अचानक किसी देश का प्रधानमंत्री मर जाए तो सरकार उसकी अंतिम क्रिया कर्म कि फिक्र नहीं करेगी बल्कि उसकी जगह फौरन चाहे वो अस्थाई (temporary) ही हो नियुक्त किया करेगी। ये बहुत अहम मामला होता है। ये ही फिक्र सहाबा किराम ने की थी।

यही वो ख़िलाफत थी जिसके लिए इमाम हुसैन (رضي الله عنه) ने शहादत दी कि कहीं ऐसा ना हो कि इसमें किसी तरह का भर्ष्टाचार (corruption) पैदा हो जाए। ‘मुसनद अबुयाला’ नामक एक हदीस की किताब में हज़रत अनस बिन मालिक (رضي الله عنه) से रिवायत है इसमें आया है कि बारीश के फरीश्ते ने अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) से इजाज़त मांगी कि वो अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) कि ज़ियारत करें और उनको इजाज़त दे दी गयी। इस दिन हज़रत मुहम्मद मुस्तफा (صلى الله عليه وسلم) हज़रत उम्मुल मोमिनीन उम्मे सलमा (رضي الله عنها)  के पास थे। आप  (صلى الله عليه وسلم) ने उनसे कहा “ऐ उम्मे सलमा दरवाजे को बन्द रखा करो ताकि कोई बहार से अन्दर ना आ जाए हालांकि वो अभी दरवाजे तक पहुंची नहीं थी इतने में हसन इब्ने अली (رضي الله عنه) दरवाजा खोल कर अन्दर आ गये। हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) ने उन्हें अपने गले से लगाया, उनका बोसा लिया तो फरिश्तों ने कहा के “क्या आप इनसे मोहब्बत करते हैं” तो पैग़म्बर (صلى الله عليه وسلم) ने कहा “हाँ।“ फरीश्तों ने कहा तब तो तुम्हारी क़ौम इनको जरूर शहीद कर देगी। फरिश्ते ने कहा अगर आप चाहें तो हम आपको वो जगह भी दिखा दें जहाँ उनको शहीद किया जाएगा।” यह पेशनगोई सुन कर आप (صلى الله عليه وسلم) कि आँखें तर हो गयी।

यकीनन इमाम हुसैन (رضي الله عنه) कि शहादत इस्लामी तारीख एक बहुत अफसोसनाक वाक़िया भी है। आप (رضي الله عنه) ने ख़िलाफत को बचाने के लिए अपने पूरे परिवार को क़ुरबान किया। हांलाकि वो फौज जिन्होंने आपके खिलाफ मंसूबाबन्दी की वो मुसलमान ही थे इसलिए भी मुसलमान इसका अफसोस मनाते हैं। अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने शहीद को बुलन्द मुक़ाम अता किया है। बहुत कमज़ोर आमाल वाले लोगों को भी अगर शहादत नसीब होती है तो अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने उनके लिए एक खास क़िस्म का दर्जा रखा है। अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने क़ुरआन मजीद में फरमाया के “जो लोग अल्लाह कि राह में शहीद हो जाए उनको मुर्दा ना कहो बल्कि वो जिन्दा हैं और उनको उनके रब कि तरफ से रिज़्क भी मिलता है“ तो अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने शहीदों का एक बहुत बडा मक़ाम रखा है। इमाम हुसैन की शहादत हमें शहादत के ज़ज्बे कि तरफ राग़िब करती है। इमाम हुसैन (رضي الله عنه) ने अपनी और अपने ख़ानदान की क़ुरबानी दी आखिर उनके दिमाग में क्या बात रही होगी कि उन्होंने इस चीज के लिए क़ुरबानी दी। इस शहादत को अल्लाह के नबी  (صلى الله عليه وسلم) कि हिज़रत से जोड कर समझना चाहिए के वो हिजरत किस लिए हुई थी।

यहाँ नबी  (صلى الله عليه وسلم) की हिजरत के वाक़िये का बयान करना ज़रूरी है वाक़िया इस तरह से है के क़ुरैश को इस बात कि बहुत ज्यादा चिंता हुई के अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) को मक्का के बाहर के क़बीलों से मदद मिल रही है। यानी अंसार से उन्हें समर्थन मिल रहा है। ऐसे में वो सारे के सारे दारुल नदवा में इकट्ठे हुए। दारुल नदवा मुशरीकीने मक्का की एक तरह कि संसद (house of assembly) थी । वो अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) को अपने रास्ते से हटाने का बारे में विचार विमर्श करने के लिये यहाँ इकट्ठा हुऐ। (नाऊज़ुबिल्लाह) इसमें बडे फैसले लेने वाले लोग मौजूद थे। ऐसे में एक नज्दी नागरिक के रूप में शैतान भी वहाँ आया। जबकी लोग मश्वरे दे रहे थे और कई तरह की योजनाऐं बना रहे थे। एक ने यह मश्वरा दिया के आप  (صلى الله عليه وسلم) को ज़ंजीरों से बान्ध दिया जाए और इसके बाद उनको उनके हाल पर छोड दे जिस तरह जुबेर और अल-नबेग़ा नाम के दो शायरों के साथ किया गया। और जिस तरह से वो बाद में मर गये उसी तरह से नाऊज़ूबिल्लाह आप भी शहीद हो जाएं। ऐसे में शैतान जो नज्दी शेख़ की शक्ल में आया था उसने कहा के नहीं ये अच्छी योजना नहीं है अगर तुम उन्हें क़ैद कर दोगे तो यह ख़बर आस पास वालों को पहुंच जाएगी कि तुमने उन्हें बन्द कर रखा है और ये ख़बर उनके मददगारों तक भी पहुंच जाएगी जिससे हो सकता है कि वो तुम पर हमला कर दें उन्हें छुडा लें और यहाँ तक कि ये जंग जब तक चले जब तक कि वो तुम पर हावी ना हो जाएं। ये अच्छी योजना नहीं है। किसी दूसरे ने कहा के ऐसा करो कि हमारी इस रियासत से उनको देश निकाला दे दो अगर वो यहाँ से एक बार चले जाएगें तो हमार पीछा छुट जाएगा। और उसके बाद हमारे मुआमलात जिस तरह से पहले चल रहे थे वैसे चलने लगेगें। नज्दी के रूप में शैतान ने फिर दुबारा अपनी राए दी। उसने कहा नहीं ये भी अच्छी योजना नहीं है। तुम जानते हो कि वो कितनी अच्छी मीठी बाते करते हैं और उनकी बातें अक्ल को भाने वाली होती हैं। वो अपनी बातों से दूसरो को मोह लेते हैं और अपने पैग़ाम को दूसरो तक पहूँचा देते हैं अगर तुमने ऐसा किया तो वो बाहर के लोगों को तुम्हारे खिलाफ इकट्ठा कर लेगें और हो सकता है कि तुम्हें शिकस्त दे दें। तो तुम्हे चाहिये कि तुम कुछ और तरकीब निकालो, उनको जिला वतन मत करो। ऐसे में अबूजेहल ने एक तरकीब निकाली। अबूजेहल ने कहा मेरे पास एक तरकीब है जो अभी तक किसी के दिमाग़ में नहीं आई। लोगों ने कहा क्या है? उसने कहा कि हमें ऐसा करना चाहिए कि हमें हर क़बीले से एक एक नौजवान को लेना चाहिए और ये सारे नौजवान क़बीलों में सबसे ऊँची नस्ल के लोग होगें जिनकी अहमियत क़ाईद (leader) की हो। और उन सब हम को एक चमकती हुई तलवार देगें । ये सारे नौजवान एक साथ मिल कर (नाऊज़ु बिल्लाह) मुहम्मद पर हमला करेंगे। मिल-जुल कर कत्ल कर देंगे और इस तरह से हमारा पीछा छूट जाएगा। अगर उन्होंने ऐसा किया तो उनके खून का इल्ज़ाम हमारे सारे क़बीलों पर चला जाएगा। किसी एक ख़ास क़बीले पर इल्ज़ाम नहीं आएगा। इससे आपस में लडने कि कोई गुंज़ाइश नहीं रहेगी। और बनू अब्दे मुनाफ [आप (صلى الله عليه وسلم) का खानदान] हमारे खिलाफ ज़ंग नहीं कर सकेगा क्योंकि हम सब शामिल होंगे। उनके पास सिर्फ एक ही तरीका रह जाएगा कि वो हमसे ख़ून बहा (blood money) ले लें और खामोश हो जाएं । तो ऐसे में नज्दी की शक्ल में आये शैतान ने कहा कि जो कुछ इन्होने कहा है ये बिल्कुल सही कहा है।
इस वाक़िये से ये बात समझी जा सकती है कि मुशरीकीने मक्का आप (صلى الله عليه وسلم) कि हिज़रत से ख़ौफज़दा थे कि कहीं आप मक्का से चले गये और आपकी बातों की कशिश में आकर लोग आपके मुत्तबी बन जाऐंगे। और इसके नतीजे में इस्लाम को ताकत मिल जाएगी। इस्लाम एक सियासी रूप ले लेगा। अगर उनके पास ताकतवर लोग हो गये तो वो अपनी खुद कि एक छोटी सी रियासत बना सकते है जो कि क़ुरैश के लिए एक बडा ख़तरनाक साबित होगा। यह ही वजह है कि उन्होंने इस बात को बिल्कुल पसन्द नहीं किया के अल्लाह के नबी  (صلى الله عليه وسلم) को जाने दिया जाए या फिर उनको खुद निकाल दिया जाए। दोनो मुतबादिल (options) पसन्द नहीं किये गये। लेकिन अलहम्दुलिल्लाह अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) कि मदद आयी और अल्लाह के नबी और सहाबाऐ किराम वहाँ से हिज़रत करने में कामियाब हो गये। और मुशरिकों की सारी तरकीबें नाकामयाब साबित हुईं। ये ही वो हिज़रत थी जिससे इस्लाम को सरबुलन्दी हाँसिल हुई । इमाम इब्ने कसीर जो की तफसीर इब्ने कसीर के लेखक है कहते है कि हज़रत उमर (رضي الله عنه) के दौर में इस बात पर इजमा हो गया कि असल में इस्लामी दौर कि शुरूआत हिज़रत के बाद से हुई। इसीलिये मुस्लिम उम्मत के लिये इस दिन को यादगार बना दिया ताकि साल का पहला दिन हिजरत की याद दिलाऐ।
हिजरत के बाद एक बहुत बडी तबदीली वाक़ेअ हुई यानि चन्द मुट्ठी भर लोग जो मक्के में ज़ुल्म और सितम का शिकार हो रहे थे। हिजरत के बाद मदीने की एक ऐसी रियासत में रहने लगे जहाँ उनके लिये इस्लाम पर चलना आसान था। मक्के में जहाँ हज़रत मुहम्मद मुस्तफा (صلى الله عليه وسلم) सिर्फ एक दाई थे। जो सिर्फ जबान से अपनी बात समझाया करते थे। मदीने में उससे कहीं बढ कर एक सियासी, सामाजिक और एक फौजी लीडर बन गये। आप (صلى الله عليه وسلم) ने आस पास के क़बीलों से मुहाईदे किये, रोम और फारस जैसी बडी बडी ताक़तों को आपने चेलेंज किया। और उनकी रियासतों को हटा कर दारुल इस्लाम क़ायम किया। जहाँ मुट्ठी भर मुसलमान बिना रियासत के जिन्दगी गुज़ारते थे जिनकी तादात बडे धीमे धीमे बडी मुश्किल से बढती थी जब इस्लामी रियासत क़ायम हो गयी तो इसके बाद मुसलमानो कि तादात में अचानक बढोतरी हो गई। यही वजह है कि सहाबा इकराम (رضی اللہ عنھم) ने हिज़रत को इस्लामी कलंडर की शुरूआत के लिये चुना। सहाबा के इस अमल से हमें सबक मिलता है कि किसी वाक़िये की असल रूह को समझना चाहिये ना कि वाक़ियात को सिर्फ बयान कर देना ही काफी होता है।
इमाम हुसैन (رضي الله عنه) ने मुसलमानों की इन सारी तरक़्क़ी को अपनी आँखों से देखा था कि किस तरह से 
मुसलमानों की तरक़्क़ी का राज़ ख़िलाफत यानि मुसलमानों की राजनैतिक वयवस्था थी। जिसने मुसलमानों की तकदीर बदल दी थी और इसी को बचाने के लिए इमाम हुसैन (رضي الله عنه) ने अपनी क़ुरबानी दी कि कहीं ऐसा ना हो जो चीज़ मुसलमानों को बडी क़ुरबानीयों के बाद हांसिल हुई थी वो वापस उन से छिन जाए या कहीं गैरमुनासिब लोगों के हाथ में चली जाए। हज़रत मुआविया (رضي الله عنه) अपने इंतकाल से पहले अपने बेटे को ख़लीफा चाहते थे और उन्होंने पहले से ही इसके लिए बैअत ले ली थी। लेकिन ऐसे कई सहाबा (رضی اللہ عنھم) थे जैसे अब्दुला इब्ने ज़ुबेर और  अब्दुला इब्ने उमर वो इस बात को पसन्द नहीं करते थे के वक़्त से पहले ही ख़लीफा को बैअत दे दी जाए। क्योंकि उन्हे इस बात का डर था कि कहीं इससे राज वंश (heredity rule) कि शुरूआत ना हो जाए। इस्लाम में राज वंश का कोई तसव्वुर नहीं है जहाँ बाप का बेटा और बेटे का बेटा हुक्मरानी सम्भाले। ये दरअसल फारसियों का फलसफा था। और यही तारीख निगारों ने लिखा है कि हज़रत मुआविया (رضي الله عنه) दरअसल फारसियों के तसव्वुर से मुतासिर हो गये थे जिसमें बादशाह अपनी औलाद को अपना गद्दीनशीन बना दिया करता था। ये फारसी तसव्वुर था जो इस्लामी निज़ामे इस्लामी से टकराती थी लेकिन उन्होंने ऐसा किया। यही वजह थी कि हज़रत हुसैन (رضي الله عنه) ने यज़ीद बिन मुआविया कि ख़िलाफत को क़ुबुल नहीं किया। क्योंकि उनको एक ज़ाईज बैअत नहीं दी गयी थी। वो ख़िलाफत की गद्दी पर मुतसल्लित किया गया था। और इमाम हुसैन (رضي الله عنه) की उनके ख़िलाफ लडाई हुई। आखिर ऐसी कौनसी दलील आप इमाम हुसैन (رضي الله عنه) ने सुनी थी जिसकी बिना पर आपने यज़ीद की मुख़ालिफत की, वो दरअसल ये हदीस थी जिसके रावी हज़रत अबु हुरैरह (رضي الله عنه) हैं इसमें बयान किया गया कि अल्लाह के नबी  (صلى الله عليه وسلم) के पास एक शख्स आया और पूछा “ऐ अल्लाह के नबी  (صلى الله عليه وسلم) अगर कोई मेरे पास इस नियत से आये कि वो मेरा माल मुझसे छीन ले तो मेरा क्या रद्दे अमल होना चाहिए?” आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया कि “अगर वो तुमसे छीनना चाहे तो तुम उसको मत दो।“ उसने फिर कहा “क्या मैं उससे अपने हक़ के लिए लड सकता हूँ?” आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया “हाँ तुम उससे लड सकते हो अगर वो तुम्हे ना दे तो।“ उस आदमी ने कहा कि ”मेरी हालत आखिरत में क्या होगी अगर वो मुझे मार डाले?” तो अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने जवाब दिया कि “इस हालत में अगर तुम मारे गये तो तुम शहीद होगें।“ इस पर उस शख़्स ने कहा “तो क्या होगा अगर वो मेरे हाथ से मर जाए?” कि आपने फरमाया “फिर उसका ठिकाना ज़हन्नुम होगा।“
इस हदीस से मालूम होता है कि जब छोटी सी मिल्कियत के लिए नबी (صلى الله عليه وسلم) ने इस बात की तलक़ीन की कोई तुम से अपनी दौलत को छीनना चाहे तो उससे लडो और ये तुम्हारे लिये जाइज़ है तो मुसलमानो कि सबसे बडी दौलत जिसको अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने दिन रात मेहनत करके खडा किया था इमाम हुसैन कैसे इस बात को बर्दाश्त कर सकते थे कि वो चीज इस तरह से बर्बाद हो जाए। यही वजह थी कि उन्होंने यजीद के खिलाफ बग़ावत की। मुसलमान चाहे वो शिया हो या सुन्नी हो वो हमेशा इमाम हुसैन के इरादे और उनकी कोशिश को बडी इज़्ज़त की निगाह से देखते हैं। आज मुसलमानों को चाहिए कि इस मुबारक महीने में इस अज़ीम वाक़ियात को इस्लामी तारीख नुक़्ताऐ नज़र से देखें और उससे एक सबक़ हाँसिल करें ना कि कहानी किस्सों कि तरह जैसे कि ग़ैर मुस्लिम महाभारत और रामायण का क़िस्सा सुनते हैं और उनका कोई असर उनकी जिन्दगी में नहीं होता।

हमारे यहाँ आने वाले दो महीनों तक जलसे और इजलास का दौर रहेगा। सुबह फज्र तक बहुत लम्बे लम्बे वाक़ियात सुनाऐ जाएंगे। लेकिन मुसलमानो पर इसका असर सिर्फ उस जलसे और इजलास में नज़र आयेगा लेकिन इसके बाद उनकी जिन्दगी में कोई तब्दीली नहीं आएगी। इस्लाम इस वाक़ियात से क्या सबक देना चाहता है उस बारे में कोई चिंता नहीं होती। हमें चाहिए कि हम इस रैवये को बदले और उसकी जो असली रूह थी उसको पहचान कर उसकी मंशा के मुताबिक़ अमल करें जैसा कि क़ुरआन ने अम्बियाओं के वाक़ियात और उनकी जिद्दोजहद को हमारे लिए एक सबक बनाया ताकि इनसे हमें अपनी ज़िन्दगी में रहनुमाई हाँसिल हो ।

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