कोई हुक्म फर्ज़ कब होता है?

पहले यह जाने
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क़रीना:

क़रीना का मानी ख़िताब की मुराद (मायने) तय करने वाली लफ़्ज़ी या अहवाली अलामत है। हुक्मे शरई की क़िस्म को नुसूस (क़ुरआन और सुन्नत) के कराईन (इशारों) से समझा जाता है। यानी उन्ही कराईन से किसी फे़अल का फ़र्ज़, मंदूब, मुबाह, मकरूह या हराम होना ज़ाहिर होता है। क़रीना की तीन अक़साम हैं:

1) वो जो तलबे जाज़िम होने का फ़ायदा दे। इस से फे़अल के फ़र्ज़ या हराम होने का तअय्युन होता है।
2) वो जो तलबे ग़ैर-जाज़िम होने का फ़ायदा दे। इस से फे़अल के मंदूब या मकरूह होने का तअय्युन होता है।
3) वो जो इख़्तियार (अधिकार) देने का फ़ायदा दे। इस से फे़अल के मुबाह होने का तअय्युन होता है।

अब समझे
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किसी फेल के फर्ज़ होने के कराईन

तलबे जाज़िम के कराईन (इशारे):

1) दुनिया या आख़िरत में सज़ा।

وَٱلسَّارِقُ وَٱلسَّارِقَةُ فَٱقۡطَعُوٓاْ أَيۡدِيَهُمَا جَزَآءَۢ بِمَا كَسَبَا نَكَـٰلاً۬ مِّنَ ٱللَّهِۗ
चोरी करने वाले मर्द और औरत के हाथ काट दिया करो, ये बदला है इस का जो उन्हों ने किया अज़ाब अल्लाह की तरफ़ से (अल माईदा-38)


إِنَّ ٱلَّذِينَ يَأۡڪُلُونَ أَمۡوَٲلَ ٱلۡيَتَـٰمَىٰ ظُلۡمًا إِنَّمَا يَأۡڪُلُونَ فِى بُطُونِهِمۡ نَارً۬اۖ
وَسَيَصۡلَوۡنَ سَعِيرً۬ا
जो लोग ना हक़ ज़ुल्म से यतीमों का माल खा जाते हैं, वो अपने पेट
में आग ही भर रहे हैं और अनक़रीब वो दोज़ख़ में जाऐंगे  (अन्निसा-10)

2 ) जब किसी फे़अल (कार्य) को लगातार करने के साथ किसी उज़्र (परेशानी) पर कोई रुख़स्त या क़ज़ा या माफ़ी का बयान हो।

يَـٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡڪُمُ ٱلصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِڪُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ( ١٨٣ ) أَيَّامً۬ا مَّعۡدُودَٲتٍ۬ۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ۬ فَعِدَّةٌ۬ مِّنۡ أَيَّامٍ أُخَرَۚ
ऐ ईमान वालो ! तुम पर रोज़े रखना फ़र्ज़ किया गया जिस तरह तुम से पहले लोगों पर फ़र्ज़ किए गए थे ताकि तुम तक़वा इख़्तियार करो, गिनती के चंद ही दिन हैं लेकिन तुम में से जो शख़्स बीमार हो या सफ़र में हो तो वो और दिनों में गिनती को पूरा कर ले (अल बक़राह-183,184)


يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا قُمۡتُمۡ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ فَٱغۡسِلُواْ وُجُوهَكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ إِلَى ٱلۡمَرَافِقِ وَٱمۡسَحُواْ بِرُءُوسِكُمۡ وَأَرۡجُلَڪُمۡ إِلَى ٱلۡكَعۡبَيۡنِۚ....فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءً۬ فَتَيَمَّمُواْ
ऐ ईमान वालो! जब तुम नमाज़ के लिए उठो तो अपने मुँह को और अपने हाथों को कोहनियों समेत धोलो, अपने सरों का मसह करो और अपने पांव को टखनों समेत धो लो.....तुम्हें पानी ना मिले तो पाक मिट्टी से तयम्मुम करलो  (अल माईदा -6)


من نام عن صلاۃ أو نسیھا فلیصلھا إذا ذکرھا (متفق علیہ(
जिस किसी ने नींद या भूल की वजह से नमाज़ ना पढ़ी हो तो याद आते ही इसे पढ़ ले (मुत्तफिक़ अलैहि)

3 ) जब कोई क़ौल या फे़अल किसी इल्तिज़ाम की ज़रूरत को बयान करे बावजू इसके इस में मशक़्क़त और दुशवारी पाई जाये और इस का कोई बदल ना हो ।
كُتِبَ عَلَيۡڪُمُ ٱلۡقِتَالُ وَهُوَ كُرۡهٌ۬ لَّكُمۡ
तुम पर क़िताल फ़र्ज़ किया गया है चाहे  वो तुम्हें ना गवार मालूम हो (अल बक़रह-216)

इस्लामी रियासत को रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने एक मुअय्यन तरीक़े से क़ायम किया, जिस में ताक़तवर क़बाइल से नुसरत तलब करना भी शामिल था। इन सरगर्मीयों में आप صلى الله عليه وسلم लहू लुहान भी कर दिए गए मगर आप صلى الله عليه وسلم ने ये काम जारी रखा और क़बाइल के सामने अपने आप को पेश करते रहे, यानी शदीद तकलीफ़ और मौत के ख़तरे के बावजूद, आप صلى الله عليه وسلم तलबे नुसरत के अमल को मुस्तक़िल तौर पर सरअंजाम देते रहे।

لو لا أن أشق علی أمتي لأمرتھم بالسواک عند کل صلاۃ ‘‘(متفق علیہ(
(अगर मुझे इस में मेरी उम्मत के लिए दुशवारी ना नज़र आती तो में उसे हर नमाज़ के साथ मिस्वाक करने का हुक्मे देता)

आप صلى الله عليه وسلم ने उम्मत को हर नमाज़ के साथ मिस्वाक करने का हुक्म इसलिए नहीं किया कि इस में उसके लिए दुश्वारी थी। इस का मतलब ये है कि आप صلى الله عليه وسلم के किसी हुक्म पर, अगर किसी फे़अल की अदायगी में दुशवारी ज़ाहिर हो, तो वो अम्र फ़र्ज़ होगा।

4 ) अगर कोई फे़अल किसी वाजिब का बयान हो या इस का मौज़ूअ फ़र्ज़ हो या इस्लाम की हिफ़ाज़त पर दलालत करे।
خذوا عني مناسککم ‘‘ (مسلم(
अपने हज के मनासिक मुझ से लो

وَلۡتَكُن مِّنكُمۡ أُمَّةٌ۬ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلۡخَيۡرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ
 عَنِ ٱلۡمُنكَرِۚ
तुम में से एक जमाअत ऐसी होनी चाहिए जो इस्लाम की तरफ़ बुलाए, अच्छाई का हुक्म दे और बुराई से मना करे  (आले इमरान -104)

مروا أبناء کم بالصلاۃ لسبع واضربوھم علیھا لعشر وفرقوا بینھم في المضاجع ‘‘(أبو داود(
अपने बच्चों को नमाज़ पढ़ने का हुक्म दो जबकि वो सात बरस के हो जाएं और दस साल की उम्र में उन्हें मारो (अगर वो ना पढ़ें) और उनके बिस्तर अलैहदा कर दो

5) जब किसी हुक्म की बजा आवरी को कईं सूरतों में महदूद कर दिया जाये और इन में इख़्तियार दिया जाये।
وَإِذَا حُيِّيتُم بِتَحِيَّةٍ۬ فَحَيُّواْ بِأَحۡسَنَ مِنۡہَآ أَوۡ رُدُّوهَآ
और जब तुम्हें सलाम किया जाये तो तुम इस से अच्छा जवाब दो या उन्ही अल्फाज़ को लौटा दो  (अन्निसा-86)

6) नस में ऐसे अल्फाज़ का ज़िक्र जो बज़ाते ख़ुद वजूव फ़र्ज़ीयत या हुर्मत पर दलालत करें।
يُوصِيكُمُ ٱللَّهُ فِىٓ أَوۡلَـٰدِڪُمۡۖ لِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِ
- الی قولہ- فَرِيضَةً۬ مِّنَ ٱللَّهِ

अल्लाह तुम्हें तुम्हारी औलाद के बारे में हुक्म करता है कि एक लड़के का हिस्सा दो लड़कीयों के बराबर है......ये हिस्से तुम पर अल्लाह की तरफ़ से फ़र्ज़ कर दिए गए हैं  (अन्निसा-11)
إِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيۡڪُمُ ٱلۡمَيۡتَةَ

तुम पर मुर्दार हराम कर दिया गया है (अल बक़रह-173)
لا یحل لامراۃ تؤمن باللّٰہ والیوم الآخر أن تسافر
مسیرۃ یوم ولیلۃ إلا ومعھا محرم ‘‘(متفق علیہ(
जो औरत अल्लाह और यौम आख़िरत पर ईमान लाए तो इस के लिए जायज़ नहीं कि वो अपने महरम के बगै़र एक दिन और एक रात से ज़्यादा सफ़र करे (मुत्तफिक़ अलैही)

7) जब किसी अमल को ऐसे वस्फ़ (सिफत/विशेषता) से मौसूफ़ किया जाये जिस से नहीं-ए-जाज़िम (निश्चित तौर पर मनाही) समझी जाये, मसलन अल्लाह की नाराज़ी या ग़ज़ब, मज़म्मत या कोई काबिले नफ़रत वस्फ़ (विशेषता) जैसे बेहयाई या शैतानी अमल, ईमान या इस्लाम की नफ़ी वग़ैरा।

وَلَـٰكِن مَّن شَرَحَ بِٱلۡكُفۡرِ صَدۡرً۬ا فَعَلَيۡهِمۡ غَضَبٌ۬ مِّنَ ٱللَّهِ
मगर जो लोग खुले दिल से कुफ्र करें तो उन पर अल्लाह का ग़ज़ब है (अन्नहल-106)

إِنَّهُ ۥ ڪَانَ فَـٰحِشَةً۬ وَمَقۡتً۬ا وَسَآءَ سَبِيلاً
अपनी सौतेली माओं से निकाह करना ये बेहयाई का काम है और बुग़्ज़ का सबब है और बड़ी बुरी राह है (अन्निसा-22)

لَّا يَتَّخِذِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلۡكَـٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٲلِكَ فَلَيۡسَ مِنَ ٱللَّهِ فِى شَىۡءٍ
मोमिनों को चाहिए कि वो ईमान वालों को छोड़कर काफ़िरों को अपना दोस्त ना बनाये और जो ऐसा करेगा वो अल्लाह की किसी हिमायत में नहीं  (आले इमरान-28)

8) जब तलब ईमान के साथ मक़रून (जुडा) हो या जो कुछ इस के क़ाइम मक़ाम (बराबर) है।
لَّقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِى رَسُولِ ٱللَّهِ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٌ۬ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأَخِرَ
यक़ीनन तुम्हारे लिए रसूलुल्लाह में बहतरीन नमूना मौजूद है हर उस शख़्स के लिए जो अल्लाह की और रोज़े क़ियामत की तवक़्क़ो रखता है (अल अहज़ाब-21)

9) जब तलब मनअ ए मुबाह के साथ मकरुन है (माँग) मुबाह अमल की मनाही के साथ मक़रून (जुडी) हो।
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا نُودِىَ لِلصَّلَوٰةِ مِن يَوۡمِ ٱلۡجُمُعَةِ فَٱسۡعَوۡاْ إِلَىٰ ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَذَرُواْ ٱلۡبَيۡعَۚ ذَٲلِكُمۡ خَيۡرٌ۬ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ
ऐ ईमान वालो! जब जुमे के दिन नमाज़ की अज़ान दी जाये तो तुम अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ दौड़ पडो और ख़रीद व फ़रोख़्त छोड़ दो, ये तुम्हारे हक़ में बहुत ही बहतर है अगर तुम जानते हो  (अल जुमा-9)

10) अगर माला यतिम्मुल वाजिब इल्ला ब विहि फहुआ वाजिब  (ما لا یتم الواجب إلا بہ فھو واجب जिस अमल के बिना वाजिब को अदा नहीं किया जा सकता वह अमल भी वजिब हो जाता है) के क़ाईदे में शामिल हो । यानी हर वह अमल जो किसी वाजिब की किफ़ायत करे और उसे नफ़ा पहुंचाए ।

मिसाल के तौर पर नमाज़ के लिए इस के अरकान (रुकू, सजदा वग़ैरा), क्योंकि उन के बगै़र नमाज़ पूरी नहीं होती। लेकिन अगर कोई चीज़ इस अमल में शामिल नहीं बल्कि इस से ख़ारिज है, तो इस सूरत में वह किसी दूसरी दलील की मोहताज है। मसलन वुज़ू, क्योंकि ये नमाज़ का हिस्सा नहीं बल्कि उस की शर्त है।

इसी तरह इस क़ाईदे के मुताबिक़ इस्लामी रियासत के क़याम के लिए जो भी आमाल दरकार हैं, वो भी लाज़िम ठहरे। यानी एक मुनज़्ज़म जमाअत का होना, जो इस्लामी मब्दाअ (ज़ाब्ताये हयात / जीवन व्यवस्था) पर क़ायम हो, उस की तरफ़ पुकारे और इस मब्द को ज़िंदगी में नाफ़िज़ करने के लिए फ़िक्री और सियासी जद्दो जहद करे।

11 ) अगर किसी काम में कोई फे़अल उसूली तौर पर ममनूअ (मना) हो, मगर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इस के बावजूद, एक ख़ास मौक़ा पर, उसे सरअंजाम दिया हो।


मिसाल के तौर पर नमाज़ की एक रकात में एक से ज़्यादा रुकू करना ममनू है क्योंकि इस से नमाज़ बातिल हो जाती है। मगर नमाज़-ए-ख़ुसूफ़ में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के फे़अल से ये साबित है कि आप صلى الله عليه وسلم ने दो रुकू फ़रमाए जो इस फे़अल के वाजिब होने का क़रीना ठहरा। लिहाज़ा ये दो रुकू नमाज़-ए-ख़ुसूफ़ के रुक्न क़रार पाए।
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