हसब नसब अहमियत और हुक्मे शरई

हिक्मते इलाहिया का तक़ाज़ा ये है कि औरत गर्भ और बच्चे की पैदाइश का बोझ उठाए । लिहाज़ा औरत का निकाह एक ही मर्द तक क़ैद है और इसके लिए एक से ज़्यादा मर्द का होना हराम रखा गया। औरत के लिए एक से ज़्यादा मर्द से निकाह के हराम होने का कारण ये है कि हर शख़्स को उसके नसब का इल्म हो। शरीयत का मक़सद ये है कि नसब साबित रहे और शरअ में ये मुआमला निहायत साफ  बयान कर दिया गया है। हमल की मुद्दत कम अज़ कम छः महीना है, ज़्यादातर से ये मुद्दत नौ माह की होती है। एक शौहर की बीवी जब निकाह की तारीख़ से छः महीने बाद बच्चे को जन्म दे तो स कि ये बच्चा उसी शौहर का है क्योंकि नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) का क़ौल है कि ((الولد للفراش)) यानी बच्चा उसी का है जिस के बिस्तर पर उस की विलादत हुई। ये हदीस हज़रत आयशा (رضي الله عنها) से बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ में मनक़ूल है। सारांश ये कि जब तक सूरते हाल ये हो कि औरत एक शख़्स की निकाह में हो और निकाह के छः माह बाद विलादत हुई हो तो वो बच्चा हर हाल में शौहर ही का होगा।

जबकि उस की बीवी निकाह के छः माह या इस से ज़्यादा समय में पैदाइश करे और शौहर को ये यक़ीन हो कि बच्चा उसका नहीं है तो शौहर के लिए इजाज़त है कि वो कुछ शर्तों के पूरा होने के साथ इस बच्चे को क़बूल करने से इन्कार कर दे। अगर शौहर इन शर्तों को पूरा नहीं करता तो इसका बच्चा क़बूल करने से इन्कार करना क़ाबिले क़बूल नहीं होगा। वो बच्चा उसी का तस्लीम किया जाएगा चाहे वो चाहे या ना चाहे। ये शर्तों निम्न लिखित हैं:

* 1. ये कि बच्चा ज़िंदा पैदा हुआ हो। एक शौहर ऐसे बच्चे के नसब से इंकार नहीं कर सकता जो ज़िंदा पैदा ना हुआ हो क्योंकि मुर्दा पैदाइश वाले बच्चे के नसब क़बूल ना करने के लिए कोई शरई हुक्म वारिद नहीं हुआ।

*2. ये कि शौहर ने सीधे तौर पर या इशारतन उस को अपना बच्चा क़बूल ना कर लिया हो। अगर शौहर साफ़ तौर पर या ढके छिपे लफ़्ज़ों में बच्चे को अपना मान चुका हो तो फिर इस के बाद अब इस के इन्कार का एतबार नहीं होगा।

*3. शौहर का ये इंकार खास वक़्त और खास हालात में किया जाये। खास वक़्त या तो बच्चे की पैदाइश का वक़्त है या फिर बच्चे की ज़रूरत का सामान ख़रीदने के वक़्त। अगर वो पैदाइश के वक़्त मौजूद ना हो तो फिर जब उसे विलादत का इल्म हो, उस वक़्त । इन समय और हालात के अलावा अगर शौहर बच्चे की वलदीयत से इंकार करे तो वो क़ाबिले ऐतबार नहीं होता। जब औरत बच्चे की विलादत करे उस वक़्त शौहर ख़ामोश रहे और बावजूद ऐसा कर सकने के, वो इन्कार ना करे तो बच्चे की वलदीयत साबित हो गई। अब शौहर इस के नसब से इंकार नहीं कर सकता। शौहर का बच्चे की वलदीयत से इंकार का ये इख्तियार उस जगह और वक़्त पर जहाँ उसे विलादत की इत्तिला हुई और इस के इंकार की संभावना पर निर्भर होता है। जब उसे इल्म हुआ और इसके लिए इंकार करना मुम्किन भी था, फिर भी उसने ऐसा नहीं किया तो वलदीयत आचबत हो गई क्योंकि हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: ((الولد للفراش)) यानी बच्चा उसी का है जिस के बिस्तर पर उस की विलादत हुई। अगर शौहर ये दावा करे कि उसे विलादत की ख़बर नहीं हुई क्योंकि वो किसी ऐसे मुक़ाम पर था जहाँ खबर नहीं पहुंच पाती जैसे किसी और बस्ती या मुल्क में था तो फ़ैसले के लिए इसके दावे पर उसे हलफ़ (क़सम) लेना होगा क्योंकि असल चीज़ यानी विलादत से ख़बरी है। लेकिन शौहर के बेख़बर होने का दावा उस वक़्त अमान्य होगा जब वो किसी ऐसी जगह जहाँ ख़बर उससे छिपी ना रहे, मसलन औरत के साथ घर में ही हो। अगर शौहर ये दावा करे कि मुझे विलादत की इत्तिला तो थी लेकिन मुझे ये मालूम नहीं था कि में बच्चे के अपना होने से इंकार कर सकता हूँ, या ये कि मुझे ये नहीं मालूम था कि ये इंकार फ़ौरन ही किया जाना होता है तो अगर ये हुक्म आम लोगों के इल्म में ना होता हो, तो शौहर का दावा क़बूल कर लिया जाएगा क्योंकि ये हुक्म आम लोगों के इल्म में नहीं है, जैसे उन लोगों का मुआमला है जो इस्लाम में हाल ही में दाख़िल हुए हूँ। किसी शख़्स के लिए किसी भी ऐसे हुक्म से इस तरह बेख़बर होना कि इस तरह के और लोग भी इस हुक्म से ग़ाफ़िल हो , जैसे एक नव मुस्लिम के लिए क़ाबिले माफ़ी है। लेकिन अगर उस शख़्स जैसे व्यक्ति इस हुक्म से बेख़बर नहीं हैं तो उस शख़्स की बेख़बरी का एतबार नहीं होगा।

*4. अपने बच्चे को क़बूल करने से इंकार करने के बाद लाज़िमी है कि लेआन की कार्रवाई की जाये, या वो लेआन ही के तहत बच्चे से इंकार करे। बच्चे की वलदीयत से उसका इंकार मुकम्मल लेआन के बगै़र क़बूल नहीं किया जा सकता।

इन चार शर्तों के पूरा होने के बाद अब बच्चे के नसब वलदीयत से इंकार साबित हो गया और बच्चा उस की माँ को दे दिया जाएगा। बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत इब्ने उमर (رضي الله عنه) से मर्वी है:

))أن رجلاً لاعن امرأتہ في زمن رسول اللّٰہا و انتفی من ولدھا ففرق رسول اللّٰہ بینھما،وألحق الولد بالمرأۃ((
एक शख़्स ने हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में अपनी बीवी पर लेआन किया यानी इल्ज़ाम लगाया और बच्चे को अपना मानने से इंकार कर दिया। हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने उन के बीच अलैहदगी फरमा दी और बच्चा औरत को दे दिया।

इस इंकार की शर्तों अगर पूरी ना होती हों तो ये इंकार क़बूल नहीं किया जाएगा और बच्चे की वलदीयत और नसब शौहर ही का रहेगा और उस पर वालिद होने के तमाम अहकाम जारी रहेंगे । ये वो हालात हुए जहाँ विलादत पर झगडे की शुरूआत शौहर की तरफ से हुई हो लेकिन अगर ये मतभेद बीवी की तरफ से शुरू होता है, कि औरत अपनी अज़्दवाजी ज़िंदगी में बच्चे की पैदाइश करे और शौहर इस बच्चे को अपनी बीवी का बच्चा मानने से ये कह कर इंकार करे कि ये बच्चा तुम्हारा नहीं है, तो अब उस बीवी पर ये लाज़मी होगा कि सबूत के तौर पर वो एक मुस्लिम औरत की गवाही पेश करे। यहाँ एक ही औरत की गवाही काफ़ी होती है क्योंकि बहरहाल बच्चा इस शौहर के घर पैदा होने से इस का नसब तस्लीम शूदा है । विलादत की शहादत के लिए एक औरत की गवाही जो शहादत की शर्तों के मुताबिक़ हो, काफ़ी होती है।

  
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