फ़िक्र और तरीक़ा दोनों ही इस्लाम में मौजूद है

फ़िक्र और तरीक़ा दोनों ही इस्लाम में मौजूद है:   
हम जिस किसी तरीक़े की पैरवी करना चाहते हैं ताकि उसके ज़रीये अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत क़ायम की जाये तो हम पर लाज़िमी है कि इस तरीक़े से संबधित तमाम शरई अहकाम और दलायल की छानबीन कर लें ताकि एक मुसलमान बसीरत के साथ, अल्लाह (سبحانه وتعالى) की हिदायत और अल्लाह (سبحانه وتعالى) की अता करदा रोशनी के मुताबिक़ ही चले। इरशाद बारी  है:


قل سَبِيلِي أَدْعُو إِلَى اللّهِ عَلَى بَصِيرَةٍ أَنَاْ وَمَنِ اتَّبَعَنِي وَسُبْحَانَ۔۔۔

“कह दीजिए ये मेरा रास्ता है में और मेरी पैरवी करने वाला बसीरत से अल्लाह की तरफ़ दावत देते हैं ।”  (12:108 तर्जुमा क़ुरआन)
किसी के लिए भी जायज़ नहीं कि ये कहे कि शरअ की आदत है कि वो एक चीज़ का हुक्म बयान कर देती है और फिर मुसलमान की अक़्ल, उसके हालात और उनमें मस्लिहत पर छोड़ देती है ताकि वो मस्लिहत की ख़ातिर जिसकी ज़रूरत हो उस रास्ते और तरीक़े को इख़्तियार कर ले । क्योंकि ऐसा कहने का मतलब होगा कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने इस्लामी रियासत के क़याम का हुक्म तो दिया है और इसके लिए कोशिश करने को मुसलमानों पर फ़र्ज़ क़रार दिया है लेकिन इसके क़याम का तरीक़ा क्या होगा उसको मुसलमानों पर छोड़ दिया गया है। ऐसा दावा हरगिज़ न किया जाये क्योंकि शरअ ने इस मामले में तरीक़ा के हुक्म को नहीं छोड़ दिया है और ना ही इसमें लोगों को किसी किस्म का इख़्तियार दिया गया है। ऐसा कहना इसलिए भी ग़लत है क्योंकि ये अहकामे शरीया की फ़ितरत के भी ख़िलाफ़ है। ऐसा कोई भी शरई हुक्म नहीं है जो मसाइल और मुश्किलात का हल दे और उस हल के लिए शरअ ने अमली शरई अहकाम ना बतलाएं हों जो ज़िंदगी में इस हुक्म को अमली जामा पहनाने का तरीक़े कार बयान करते हैं ताकि ज़िंदगी के हालात और हक़ीक़त के साथ उनको अंजाम दिया जा सके ।

इस तरह अगर इस्लामी अहकामात और अफ़्क़ार में उनको अंजाम देने के अमली तरीक़े की कमी हो या उनको बयान ना किया गया हो तो फिर ये सिर्फ़ किताबों, ज़हनों और ख़्यालों में एक तसव्वुराती मिसाली नमूना (imagination) बन कर रह जाते हैं और जहां हर कोई उनको सिर्फ़ इल्मी और ज़हनी अय्याशी और फ़िक्री मज़े के लिए बयान करता फिरता है लेकिन हक़ीक़ी ज़िंदगी में उनका कोई नतीजे नहीं होता है।
चुनांचे इसी ग़रज़ से अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने अपनी शरीयत में लोगों की मुश्किलात का हल बयान फ़रमाया है। इस तरह अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने उनके लिए विभिन्न व्यवस्थाएँ नाज़िल फ़रमाई जो उनकी ज़िंदगी के तमाम मामलात का हुक्म देते हुए उनका हल बयान करते हैं । चुनांचे अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने इंसान की तमाम जिबल्लतों और जिस्मानी ज़रूरीयात को इस्लामी अक़ीदे और इससे फूटने वाले व्यवस्थाओं के ज़रीये पूरा करवाया। इस तरह इस्लाम इंतिहाई स्पष्ट जीवन व्यवस्था है । ज़िंदगी के मसाइल व हक़ीक़तों का हल देने वाले अहकाम व निज़ाम दे देने से सिर्फ़ अल्लाह (جل وشانہؤ) राज़ी बह रज़ा ना थे बल्कि इसके बाद अल्लाह ने दीगर दूसरे शरई अहकाम नाज़िल फ़रमाए जिनका मक़सद ये था कि इस हल को ज़िंदगी के मैदान में अमली सूरत में नाफ़िज़ और जारी किया जाये ताकि इस्लाम कोई ख़्याली तसव्वुराती फ़लसफ़ा या सिर्फ़ वाज़ और नसीहत बन कर नहीं रह जाये। यही वजह रही कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अपने ख़ालिक़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ से सिर्फ़ पैग़ाम नहीं लाया बल्कि इसके साथ साथ लाए हुए अहकामात को नाफ़िज़ और जारी करने वाले हुक्मरान भी थे और रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) सिर्फ़ इस बात के वाज़ेह हो जाने से मुतमईन नहीं थे कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) ही वाहिद माबूद और इलाह है बल्कि उसकी वज़ाहत के साथ साथ आप (صلى الله عليه وسلم) ने इस हक़ीक़त यानी अल्लाह (سبحانه وتعالى) के इलावा कोई इला नहीं है उसको दुनिया में क़ायम किया यानी इस्लाम के निज़ाम को दुनिया में ग़ालिब क्या जारी किया नाफ़िज़ किया और इस तरह दुनिया में अमलन इस अक़ीदा तौहीद यानी लाअला अलाव लल्ला को नाफ़िज़ और जारी करके दिखलाया जिसमें अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकाम के इलावा किसी हस्ती की कोई बात तस्लीम नहीं की गई।
चुनांचे रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में लोगों को अल्लाह (سبحانه وتعالى) की जानिब दावत देने का काम किया और फिर सहावा (رضي الله عنه) की जमात के साथ मिल कर इस्लामी रियासत को वजूद में लाने के लिए काम किया यहाँ तक कि वो रियासत क़ायम हो गई जो ईमान की बुनियाद पर क़ायम हुई और जो इस्लाम को अमली सूरत में नाफ़िज़ करती थी और हर उस मुजरिम को सज़ा देती थी जो अक़ीदा या निज़ाम के ख़िलाफ़ जाता हो। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फिर दावत व जिहाद के ज़रीये इस्लाम की तब्लीग़ का काम किया। चुनांचे यही वजह रही कि हमें इस्लामी रियासत के अहकाम और क़वानीन, इस्लामी रियासत को वजूद में लाने से संबधित अहकाम, ऊक़ूबात यानी सज़ाओं के अहकामात, जिहाद के अहकामात और अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर के अहकामात आप (صلى الله عليه وسلم) की ज़िंदगी से हासिल हुए, ये तमाम शरअ के इन अमली अहकामात में से हैं जिनको शरअ ने इसलिए सादर फ़रमाया ताकि इन अहकामात के ज़रीये अक़ीदा और निज़ाम की हिफ़ाज़त की जाये और उन्हें बरक़रार और क़ायम रखा जाये और उनकी तब्लीग़ के लिए काम किया जाये और उनकी दावत दी जाये ताकि ये अक़ीदा और निज़ाम आफ़ाक़ी (universal) हो जाएं जिनको पूरी दुनिया तस्लीम कर ले।

अगर ऐसे अहकाम शरीया का इस्लाम में वजूद ना होता जो हमें ये बतलाते हैं कि अक़ीदे की हिफ़ाज़त और उसका निफ़ाज़, अक़ीदा और निज़ाम की तब्लीग़ किस तरह की जाये तो इस्लाम बुत की तरह स्थिर और बेहरकत और सिमटा हुआ होता और आज हम तक पहुंचाना होता ओर फैल ना पाता, इस्लाम ईसाई मज़हब की तरह सिर्फ़ वाअज़ और इर्शादात की गठरी बन कर रह जाता जो इससे ज़्यादा कुछ नहीं बतलाता कि ज़िना मत करो और अपने पड़ोसी की बीवी को मत धोका दो लेकिन इस बात को भी दुनिया में जारी करने का कोई तरीक़ा नहीं रखता । फिर इस्लाम ऐसे दूसरे अफ़्क़ार जो ज़िंदगी में अमली होते यानी उनके पास इसका अपना तरीक़ा होता तो उनकी आंधीयों में इस्लाम ख़त्म हो जाता, इस्लाम की बजाय ये अफ़्क़ार सब कुछ अंजाम देते जो इस्लाम अंजाम ना दे पाता चाहे उनका तरीक़ा इंसानियत के लिए नुक़्सानदेह और तबाहकुन होता मिसाल के तौर पर सोशलिज़्म, लोकतंत्र वग़ैराह। और यूं इस्लाम हक़ीक़त से हट कर किताबों में बंद होकर रह जाता जिस तरह दूसरे अफ़्क़ार की किताबों के औराक़ जो इतिहासकारो के लिए ख़ूबसूरत काल्पनिक विचार होते हैं जैसे अफ़लातून की किताब “दी रीपब्लिक” है ।

इस्लाम में ज़िना हराम है लेकिन इस किस्म के हराम ताल्लुक़ात को दुनिया में जो चीज़ रोकती है वो इस्लाम का एक दूसरा शरई हुक्म है जो ज़िना के हुक्म से जुड़ा हुआ है और जो ज़िना के मुजरिम है की शरई सज़ा देने का हुक्म है जिसको अंजाम देना इस्लामी रियासत की ज़िम्मेदारी है। चुनांचे शरीयत ने ज़िना का हुक्म यूं बयान फ़रमाया:

وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلزِّنَىٰٓ إِنَّهُ ۥ كَانَ فَـٰحِشَةً۬ وَسَآءَ سَبِيلاً۬ۖ 
“और ज़िना के भी पास न जाना के वोह बेहयाई और बुरी राह है ।” (17:32)


और फिर ज़िना के इर्तिकाब करने वाले का हुक्म यूं बयान फ़रमाया:

ٱلزَّانِيَةُ وَٱلزَّانِى فَٱجۡلِدُواْ كُلَّ وَٲحِدٍ۬ مِّنۡہُمَا مِاْئَةَ جَلۡدَةٍ۬ۖ

“ज़िना करने वाली औरत और ज़िना करने वाले मर्द को सौ सौ कूड़े मारो” (24:2)

 लेकिन ये सज़ा किसी तरह और कौन देगा शरअ ने इस ज़िम्मेदारी के लिए एक आमिल मुक़र्रर किया जो दोनों अहकामात को समाज में बरक़रार और नाफ़िज़ करेगा चुनांचे उसे रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने बयान फ़रमाया:

((إدرأوا الحدود عن المسلمين ما استطعتم، فإن وجدتم للمسلم مخرجاً فخلوا سبيله، فإن الإمام لأن يخطىء في العفو خير من أن يخطىء في العقوبة))۔
“जितना तुम से हो सके मुसलमानों से हदूद हटाओ, अगर किसी मुसलमान का सज़ा से बचने का कोई इमकान हो तो उसको बचा लो, क्योंकि इमाम (ख़लीफ़ा) के लिए माफ़ी देने में ग़लती करना इस बात से बेहतर है कि वो सज़ा देने में ग़लती करे ।” (तिर्मीज़ी, हाकिम)
 
इस तरह शरअ ने इमाम को ज़िम्मेदार मुक़र्रर किया कि उसे अंजाम दे।
यही मामला नमाज़ का भी है कि शरअ ने बयान किया कि नमाज़ अदा करना फ़र्ज़ है और फिर नमाज़ छोड़ने वाले का हुक्म यानी उसकी सज़ा का भी हुक्म बयान कर दिया। साथ ही इस सज़ा को नाफ़िज़ करने के लिए आमिल को मुक़र्रर फ़रमाया कि रियासत उसको सज़ा देगी । यूं शरअ ने इस्लाम के जितने अहकाम दिये हैं हर एक के लिए दूसरे शरई हुक्म के ज़रीये उसका तरीक़ा भी बयान कर दिया और सिर्फ़ इमाम ही को ये इख़्तियार दिया कि वो इन अहकामात की अक्सरीयत को नाफ़िज़ करे।
 
ग़ौर करने से मालूम होता है कि इस्लाम में एक बुनियादी अक़ीदा है जो जड़ की हैसियत रखता है और जड़ से कुछ शाख़ें निकलती हैं जिन्हें हम फरूई अक़ाइद कहते हैं और उनसे कुछ अफ़्क़ार जुड़े हुए हैं, इनमें ऐसे अफ़्क़ार हैं जो ख़ैर (good) क्या है शर (bad) क्या है, ख़ूबसूरती और बदसूरती, मारूफ़ व मुनकर, हलाल व हराम को बयान करते हैं इन अफ़्क़ार में इस्लाम के वो शरई अहकामात भी शामिल हैं जो इबादात, मामलात, मातऊमात (foodstuffs), मलबूसात (clothing) और अख़्लाक़ से संबधित हैं । ये तमाम इस्लामी समाज के लिए लाज़िमी हैं और हर इंसानी समाज में इनका वजूद ज़रूरी है। समाज में इन तमाम शोबों की मौजूदगी और उनके आपसी मिलाप से दूसरे विभिन्न समाज के मुक़ाबले में इस्लामी समाज की एक मुमताज़ (unique) तस्वीर उभर कर सामने आती है जिस समाज की तामीर की जानिब इस्लाम दावत देता है। इन तमाम अक़ाइद, अफ़्क़ार, और अहकामात के मिश्रण को ” الفکرالاسلامیہ“ यानी इस्लामी फ़िक्र का नाम दिया जा सकता है।

वो शरई अहकामात जो इस्लामी फ़िक्र ” الفکرالاسلامیہ“  को मुकम्मल करते हैं जिनका मक़सद इस इस्लामी फ़िक्र को अमलन वजूद देना और फिर उसकी हिफ़ाज़त करना और उसकी तब्लीग़ करना है जैसे ऊक़ूबात यानी सज़ाओं के अहकामात, जिहाद के अहकामात, ख़िलाफ़त से मुताल्लिक़ अहकामात और दावत की कैफ़ीयत के अहकामात जो इस्लामी रियासत के क़याम के लिए ज़रूरी हैं, इस तरह अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर के अहकामात वग़ैराह । इस्लाम के दीगर असल अहकामात से जुड़े हुए इन अहकामात को ” الطریقہ الاسلامیہ“ यानी इस्लामी तरीक़ा का नाम दिया जा सकता है।


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